॥ दोहा ॥
विश्वेश्वर - पदपदम की रज - निज शीश - लगाय ।
अन्नपूर्णे ! तव सुयश बरनौं कवि - मतिलाय
॥ चौपाई ॥
नित्य आनंद करिणी माता , वर - अरु अभय भाव प्रख्याता ।
जय ! सौंदर्य सिंधु जग - जननी , अखिल पाप हर भव - भय हरनी ।
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि , संतन तुव पद सेवत ऋषिमुनि ।
काशी पुराधीश्वरी माता , माहेश्वरी सकल जग - त्राता ।
वृषभारूढ़ नाम रुद्राणी , विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी ।
पदिदेवता सुतीत शिरोमनि , पदवी प्राप्त कीह्न गिरि - नंदिनी । ।
पति - विछोह दुःख सहि नहि पावा , योग अग्नि तब बदन जरावा ।
देह तजत शिव - चरण सनेहू , राखेहु जाते हिमगिरी - गेहू ।
प्रकटी गिरिजा नाम धरायो , अति आनंद भवन मँह छायो ।
नारद ने तब तोहिं भरमायहु , ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु ।
ब्रह्मा - वरुण - कुबेर - गनाये , देवराज आदिक कहि गाये ।
सब देवन को सुजस बखानी , मति पलटन की मन मंह ठानी । ।
अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या , कीह्नी सिद्ध हिमाचल कन्या ।
निज कौ तव नारद घबराये , तब प्रण - पूरण मंत्र पढ़ाये ।
करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ , संत - बचन तुम सत्य परेखेहु ।
गगनगिरा सुनि टरी न टारे , ब्रह्मा तब तुव पास पधारे ।
कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा , देहुँ आज तुव मति अनुरूपा ।
तुम तप कीह्न अलौकिक भारी , कष्ट उठायेहु अति सुकुमारी ।
अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों , है सौगंध नहीं छल तोसों । ।
करत वेद विद ब्रह्मा जानहु , वचन मोर यह सांचा मानहु । ।
तजि संकोच कहहु निज इच्छा , देहौं मैं मनमानी भिक्षा ।
सुनि ब्रह्मा की मधुरी बानी , मुख सों कछु मुसुकायि भवानी ।
बोली तुम का कहहु विधाता , तुम तो जगके स्रष्टाधाता ।
मम कामना गुप्त नहिं तोंसों , कहवावा चाहहु का मोसों । ।
इज्ञ यज्ञ महँ मरती बारा , शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा । ।
सो अब मिलहिं मोहिं मनभाय , कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये ।
तब गिरिजा शंकर तव भयऊ , फल कामना संशय गयऊ । ।
चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा , तब आनन महँ करत निवासा ।
माला पुस्तक अंकुश सोहै , कर मंह अपर पाश मन मोहे ।
अन्नपूर्णे ! सदपूर्णे , अज - अनवद्य अनंत अपूर्णे । ।
कृपा सगरी क्षेमंकरी माँ , भव - विभूति आनंद भरी माँ ।
कमल बिलोचन विलसित बाले , देवि कालिके ! चण्डि कराले ।
तुम कैलास मांहि है गिरिजा , विलसी आनंद साथ सिंधुजा । ।
स्वर्ग - महालछमी कहलायी , मर्त्य - लोक लछमी पदपायी ।
विलसी सब मँह सर्व सरूपा , सेवत तोहिं अमर पुर - भूपा ।
जो पढ़िहहिं यह तुव चालीसा , फल पइहहिं शुभ साखी ईसा ।
प्रात समय जो जन मन लायो , पढिहहिं भक्ति सुरुचि अधिकायो ।
स्त्री - कलत्र पनि मित्र - पुत्र युत , परमैश्वर्य लाभ लहि अद्भुत ।
राज विमुख को राज दिवावै , जस तेरो जन - सुजस बढ़ावै ।
पाठ महा मुद मंगल दाता , भक्त मनोवांछित निधि पाता ।
॥ दोहा ॥
जो यह चालीसा सुभग , पढ़ि नावहिंगे माथ ।
तिनके कारज सिद्ध सब , साखी काशीनाथ । ।
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