एक युवा तीरंदाज खुद को सबसे बड़ा धनुर्धर मानने लगा। जहां भी जाता, लोगों को मुकाबले की चुनौती देता और हराकर उनका खूब मजाक उड़ाता। एक बार उसने एक जैन गुरु को चुनौती दी। उन्होंने पहले तो उसे समझाना चाहा, लेकिन जब वह अड़ा रहा तो उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली। युवक ने पहले प्रयास में ही दूर रखे लक्ष्य के बीचोंबीच निशाना लगाया और लक्ष्य पर लगे पहले तीर को ही भेद डाला। इसके बाद वह दंभपूर्ण स्वर में बोला-'क्या आप इससे बेहतर कर सकते हैं?' जैन गुरु तनिक मुस्कराए और बोले-'मेरे पीछे आओ।' वे दोनों एक खाई के पास पहुंचे। युवक ने
देखा कि दो पहाड़ियों के बीच लकड़ी का एक कामचलाऊ पुल बना था और वह उससे उसी पर जाने के
लिए कह रहे थे। जैन गुरु पुल के बीचोंबीच पहुंचे और उन्होंने अपने धनुष पर तीर चढ़ाते हुए दूर एक पेड़ के तने
पर सटीक निशाना लगाया। इसके बाद उन्होंने युवक से कहा-'अब तुम भी निशाना लगाकर अपनी दक्षता
सिद्ध करो।' युवक डरते हुए डगमगाते कदमों के साथ पुल के बीच में पहुंचा और निशाना लगाया। लेकिन तीर लक्ष्य के
आस-पास भी नहीं पहुंचा। युवक निराश हो गया और उसने हार स्वीकार कर ली। तब जैन गुरु ने उसे
समझाया-'वत्स, तुमने तीर-धनुष पर तो नियंत्रण पा लिया है, पर तुम्हारा उस मन पर अब भी नियंत्रण नहीं है जो किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य भेदने के लिए जरूरी है। जब तक सीखने की जिज्ञासा है, तब तक ज्ञान में वृद्धि होती है। लेकिन अहंकार आते ही पतन आरंभ हो जाता है।' युवक ने उनसे क्षमा मांगी और सदा सीखने व अपनी झमता पर घमंड न करने की सौगंध
ली।
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