मैं हैरान हूं और परेशान हूँ। बेटी नही है, न सगी बहन पर जब किसी के दुःख को प्रत्यक्ष देखने और सुनने का अवसर मिले तो पीड़ा एक समान ही महसूस होती है जैसे किसी अपने पर ही बीती हो !! न जाने क्यों अंधी दौड़ और सांसारिक भेड़-चाल में चल रहे प्रचलन को आज तथा-कथित बेटी के सुख और उसकी भलाई समझा जाता है !! नही जानता क्यों बेटी अभी भी बोझ लगने लगती है जबकि ये अटल सत्य सबको पता है कि बेटा-बेटी को जन्म देने वाली किसीकी बेटी ही होती है !! मैं बात कर रहा हूँ उस पवित्र रिश्ते की जिसको समाज मे शादी-विवाह के नाम से जाना जाता है ! विवाह एक पवित्र बंधन है जहां दो व्यक्ति अर्थात पति-पत्नी की नही अपितु दो परिवार की भी शादी होती है जिसमे परम्पराए और नियमो को कार्यान्वित करने में धन की आवश्यकता होती ही है फिर क्यों दहेज की मांग लड़के पक्ष की ओर से इतनी तीव्र होती है जैसे कोई बहुत बड़ा अहसान य बेटी पालने का खर्चा मांग रहे हो ?? कुछ तो इस धन को दूल्हा की कीमत से भी आंकते है कि दूल्हे की कीमत लगाई गई और बहुत से व्यंग्य मारे जाते है पर एक प्रथा का ऐसा दुरुपयोग आज भयावह रूप लेता नजर आ रहा है ! क्षमता के बाहर वधु पक्ष पाई पाई जोड़कर विवाह हेतु धन एकत्रित करते है ! लाखो रुपये वर पक्ष को देते है और जब व्यवस्था के नाम पर स्थिति चरमराई हो तो प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है कि आखिर ये धन किस जगह उपयोग होगा जब शादी जैसे ऐतिहासिक यादगार लम्हे में इसका उचित उपयोग न हुआ तो ऐसे प्रश्न लगने स्वाभाविक है कि ये कोई शादी है ये कोई व्यापारिक सौदा ! पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य ने सही ही कहा था कि बाहरी दिखावट और ढोंग आडम्बर की प्रथा ने लोगो के सोचने की शक्ति और तरीक़े को ही बदल दिया। शादी में कृपा,आशीर्वाद,प्रसन्न और संतुष्टि ये मुख्य भाव वर-वधु और उनके परिवार के प्रति मेहमानों के मन मे होना चाहिये न कि व्यवस्था की नाकामयाबी और व्यंग्य करते सवाल !! और इसीलिए शायद परम्परागत तरीके से कम खर्चे और सादगी में यज्ञ-हवन संस्कार व गायत्री मंदिर में शादी के उचित तरीके के विकल्प को अपनाने का एक रास्ता पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य जी ने सुझाया है !
एक सामाजिक चिंतन - ये शादी है य कोई व्यापारिक सौदा ?? | Gyansagar ( ज्ञानसागर )
byसारांश सागर
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very nice
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